साँझ

नभ नीला, छटा ये सुंदर,
गुनगुनती शाम ये गहरी,
कह रही है मुझसे जैसे,
बीत चुकी है अब दोपहरी.

अब हवा हो रही आधीर है
मेरे बालों को सहलाने को,
सांध्या गीत गा रहे हैं पंछी,
मन को मेरे बहलाने को.

कहीं दूर से कोई सरगम,
मन के तार बजाती आए.
आसमान में बनते चेहरे,
दूर ही से मुस्कुराएँ.

हरे भरे ये पेड़ हैं हिलते,
हरितिमा के छंद गाते,
दिन है डूबा, घर चलो अब,
पंछी यूँ हैं चहचहाते

मुंडेर पैर बैठा है कौवा,
इधर-उधर उड़ता मंडराता,
उछल-कूद करता वो हँसता,
आज़ादी का गीत है गाता.

आज जो सोचा तो लगा यह,
प्यारे ये पल क्यूं ना जिलाए,
क्यूं ज़िंदगी से ख़फा थी रहती,
ख़ुश होने को इतने दिन क्यूं लगाए?

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