क्षितिज के पार ....

पृथ्वी से पृथक हो कर,
समय के गर्भ से बहार,
जिन्दगी के पुल से ऊपर,
जाना चाहूंगी उस क्षितिज के पार।

जहाँ मिल जाते धरा व गगन,
जहाँ समागम हो प्रकाश अंधकार,
जहाँ एक रूप हो सबका प्यार,
जाना चाहूंगी उस क्षितिज के पार।

जहाँ धूप छाँव में ना हो कोई अंतर,
हर हाल में मन गाए निरंतर,
सुख दुख में हो साम्य विचार,
जाना चाहूंगी उस क्षितिज के पार

जहाँ मन सुन्दर है हो जाता,
और निर्गुण रूप में खो जाता,
जहाँ हो सगुण ब्रम्ह का दर्शन द्वार,
जाना चाहूंगी उस क्षितिज के पार।

मेरी ज्ञान गंगा पर, जिस सिंधु का है एकाधिकार,
जहाँ मेरा प्रेम कर जायेगा मेरा उद्धार,
जहाँ मिल जाएगा मुझे इस जीवन का सार,
जाना चाहूंगी उस क्षितिज के पार

मम प्रश्नोत्तर !

जीवन पथ पर जैसे तैसे,
गिरते, उठते, रुकते, चलते,
प्रश्न एक आ गया मचलते-

"क्यों जीवन में दृश्य बदलते?
क्यों है क्षण में भंगुर हर सुख?
क्यों सदैव रहता है कोई दुख?
सुनते रहे सदियों यह बात,
उषा आती हर रात्रि के बाद,
क्यूं नही है उषा ये लंबी?
क्यूं लगती ये इतनी दंभी?
क्यूं हर सुख है पल भर का?
क्यूं हर दुख जीवन भर का?

चलती रही इस प्रश्न को लेकर,
अकसमात ही आया एक उत्तर -

"दुख के बिना नही सुख का मोल,
दुख की महत्ता का अधिक है तोल,
जब तक दुख का ज्ञान नही है,
तब तक सुख का मान नही है,
दुख से ज्ञान यदि ले लोगे,
सुख क्षण में सदियाँ जी लोगे!"

मैने विस्मय से देखा इधर उधर,
कहाँ से आया है ये उत्तर मधुर?
पाया, अंतरमन से आवाज़ है आई,
मन ने मुझमें है शक्ति जगाई,
सुख-दुख की परिभाषा समझाई,
जीवन में नव ज्योति जगाई !

श्याम कहो तुम क्यूं नही आए?

दिन रात निहारे राह सदा से,
बैठे रहें हम आँख बिछाए,
रात ना बीते, दिन दरस ना दिखाए,
श्याम कहो तुम क्यूं नही आए?

करके वादा भूल गये तुम,
हमको आधा छोड़ गये तुम,
अपना कह के बने पराए,
श्याम कहो तुम क्यूं नही आए?

तुम्हरी रानियाँ, सुंदर काँचन,
हम वृंदावना-गोपी-अश्वेता,
इसलिए हमारा प्रेम दिए भुलाए?
श्याम कहो तुम क्यूं नही आए?

श्याम कहाँ है हृदय तुम्हारा?
क्या कहीं तुम बाँट हो आए?
बरसों रहे तुम हमें सताए,
श्याम कहो तुम क्यूं नही आए?

संगीत

प्राणो का आधार यही है,
जीवन की झंकार यही है,
हर कण में संगीत बसा है,
परमेश्वर का प्यार यही है

सात सुरों की मधुरिमा का,
अप्रतिम विस्तार यही है,
भावनाओं की अभिव्यक्ति का,
स्नेहमय संसार यही है,

हृदय का स्पंदन हृदयंगम हैं,
श्वांस में सुरों का संगम है,
हर तार की हर तरंग में,
जीवंतता की नयी उमंग है

तमस को ज्योति स्वरूप दे,
ऐसा 'दीपक' राग यही है,
प्राणों की त्ृष्णा को तृप्ति दे,
राग 'मेघ मल्हार' यही है

धर्म जाति में भेद ना जाने,
संकीर्णता का उपचार यही है,
प्रेम ही बाँटे, प्रेम सिखाए,
भावनाओं का अंबार यही है

मनुजता का आभूषण है
मनुज का उद्धार यही है
असहिष्णुता की आँधी में,
अचल अडिग दीवार यही है

सुख की आँधी, दुख की वर्षा,
हर मौसम का प्यार यही है
जीवन के हर मोड़ की व्याख्या,
करता हर 'आकर' यही है

जीवन सीमाओं से मुक्त है
क्षितिज के उस पार यही है
आत्म-परमात्म के संबंधों का,
विस्तृत आधार यही है

ज़ीवन की लयबद्धता का,
सृजन का सब सार यही है
संगीत से जीवित हर कण है
संगीत बिना संसार नही है !

तेरी राह देखूं, तेरी चाह देखूं

हृदय के अंतर में, तेरा रूप देखूं,
बूँद और समुंदर में, तेरी धूप देखूं,

फूलों में कलियों में, तेरा रंग देखूं,
साँसों की गलियों में, तेरी तरंग देखूं,

नदियों में झरनों में, तेरी मस्ती देखूं,
पर्वत की छोटी पे, तेरी हस्ती देखूं,

सूरज में चंदा में, तेरी रोशनी देखूं,
रातों की गहराई में, तेरी शांति देखूं.

सुख में और दुख में, तेरा ही नेम देखूं,
भीड़ में, एकाकी में, तेरा ही प्रेम देखूं.

हर तरफ़ हर जगह पर तू ही तू है छाया,
मेरे कण-कण को तूने ही, प्रेम से सजाया.

तेरे इस सागर में हूँ, उमड़ी- घुसड़ी सी एक लहर,
लौट कर तुझमे समा जाऊं, सोचती मैं वह पहर.

विचलित हो तुझको खोजूं, क्यूं ना तू अपनाता मुझे,
क्यूं किया है ख़ुद से अलग, क्यूं है तू भरमाता मुझे?

तेरी ही एक बूँद हूँ प्यासी, तृप्ति हो कर भी उदासी,
तेरे रूप में मिल जाने की बस में बात देखूं.

तेरी राह देखूं, तेरी चाह देखूं
तेरी राह देखूं, तेरी चाह देखूं

मैं अब चली हूँ सत् की डगर...

मैं अब चली हूँ सत् की डगर,
ना है रोग मुझको, ना कोई है डर,
माता सी धरती, पिता सा अंबर,
सत् का है रास्ता, सत् का सफ़र !

पहले थी गिरती, उठती थी, चलती,
ढूँदती थी बस लक्ष्य को नज़र,
थक हार बैठी, जब झुका यह सर,
तब पाया मैने आप ही को गुरूवर् !

जीवन में मेरे फिर हुई भोर,
आपने दिखाई सुनहरी वह डोर,
दिया मेरे हाथ में उसका एक छोर,
थामे उसे मैं चलूँ लक्ष्य ओर.

बढ़ती हूँ आगे, मन गीत गाये
ना सुध कोई मुझे कौन आए, कौन जाए,
आपको ही देखे, यह मन मुस्कुराए,
ऐसे ही मेरा हृदय प्रेम पाए.

जानूँ ना कैसी है आगे डगर यह,
इसी डोर को थामे चलते है रहना
और अगर कभी जो क़दम डगमगाए,
मुझे देख लेना, है इतना ही कहना.

मैने है छोड़े भ्रम के उजाले,
मुझको नही रास आते ये प्याले,
मुझे प्यास है ज्ञान की, तुम हो तृप्ति,
मुझे है मुक्त होना, तुम ही से मुक्ति.

मैं अब चली हूँ सत् की डगर,
ना है रोग मुझको, ना कोई है डर,
माता सी धरती, पिता सा अंबर,
सत् का है रास्ता, सत् का सफ़र !

स्वप्न

सपनों की ऊँची उड़ान है,
सपनों का सुंदर मकान है,
स्वप्न है जल से अविरल निर्मल,
स्वप्न हैं भावनाओं से कोमल.

मेरी पलकों की छाया में,
एक स्वप्न यूँ ही आ के बसा था,
मैं चंद्रिका बन छाई थी,
चहूं ओर यही दृश्य रचा था.

सिमट के जैसे सारी वसुधा,
मुझे देखने को आई थी,
कण-कण झूम रहा था कांतिमय,
धवल चाँदनी घन छाई थी.

अहा ! कितनी सुंदर थी मैं !
मुझसा कोई ना वहाँ था उज्जवल !
हर मुख पर मेरा प्रकाश था !
मुझसे दीप्तिमान था हर पल !

तभी कहीं से मंजुल इक स्वर,
मन के तार बजाता आया,
रूप रंग का भान था छूटा,
साँसों में वह आके समाया.

ईर्ष्या-ज्वलंत ज्वाला ने,
मुझे अंदर तक था भस्म किया,
जल-जल कर कराहते ,
मेरे 'अहं' ने उससे प्रश्न किया -

" हे पक्षी ! क्या तेरे चक्षु,
प्रकाश में अंधुक हो जाते?
तू जो मुझको देख ही लेता,
तेरे 'स्वर-कण' भी धुल जाते !

तेरा रंग है कला,
तभी तू सामने आने से डरता है,
मैं हूँ सुंदर उज्ज़वला, सो,
मुझको अनदेखा करता है ? "

पक्षी के काले चेहरे पर
उभरी एक ज्योति निश्चल,
उज्जवल रवि-किरण सा प्रस्फ़ुट
उत्तर मधुरम आया उस पल -

"हे चंद्रिका, तू है सुंदर,
तेरी विभा है सबसे निराली,
पर तेरी 'उजली छाया' भी,
बदलेगी ना देह ये काली.

मेरी मंजुल स्वर गंगा में,
बहने वाली रूप-गर्विता,
देख है डूबा हर कण तेरा,
सुर-सागर में बन के सरिता.

क्या तुझको है विदित नही यह,
कहाँ से आई तेरी रोशनी?
क्या तू भूल गयी है
प्राची बन जाएगी तेरी भेधिनी?

सूर्य की किरणों मे धुल कर,
तू हो जाती है पल में ओझल,
पर मेरे सुरों की गंगा,
बहती तब भी यूँ ही कल-कल !

किस काम की तेरी कांति,
जिससे सत्य उभर ना पाता,
चकाचौंध से तेरी कह,
क्या जीवन किसी का सुधर भी पाता?

अर्ध-सत्य है भूलभुलैया,
भटक रही है तू बेबान,
हृदय को अपने धवल कांति दे,
त्याग भी दे अब तू अभिमान !

क्यूं आई है जन्म तू लेकर,
पूरा करने कौन सा काम?
पहचान कौन है तू?
कहाँ है तेरा ईश्वर विध्यमान !

ढूँढ हृदय के हर कोने में,
कहाँ छुपी वह ज्योति महान
कर जीवन को सिद्ध, पहुँच जा,
अपने सत्य के ज्योति धाम !

जिसने रचा मुझको-तुझको,
किया रूप-सुर से धनवान,
जिसने ज्ञान का स्रोत बनाया,
क्यूं ना करे उसका ही ध्यान ! "

उन शब्दों ने मेरे
अंतर-घट को था झंझोड़ दिया,
एक तीव्र किरण सी उभरी,
जिसने स्वप्न को तोड़ दिया !

पक्षी, सुर, कांति व चंद्रिका,
हो चुके थे सारे ओझल,
पर वे शब्द अब भी गूँजित हो,
मचा रहे हैं मन में हलचल.

स्वप्न था सुंदर, स्वप्न था कोमल,
स्वप्न ने था ज्ञान दिया,
नमन है शत-शत उस ईश्वर को,
जिसने स्वप्न में भान दिया !

पल

पल की कहानी बड़ी निराली,
पल में कही ना जाए डाली,
हर पल नये ही रूप में आए,
फिर वह जाने क्या दिखलाए,
पल में आदि, पल में अंत,
पल को भी पर हाथ न आए,
पल में ख़ुशी, पल में आँसू,
पल ही पल पल को तरसाए,
कभी पल, पल भर में खो जाए,
कभी पल भर भी न कट पाए,
जीवन की भाव-भंगिमाओं को,
हर नव पल नये ढंग से सजाए,
चाहे लाख अंधेरा छाए,
पल में दीपक उसे मिटाए,
स्वप्निल नींदों की रातें भी,
पल भर में ओझल हो जाए,
हर पल एक एक साँस गिनाए,
हर पल, पल का मोल सिखाए,
हर पल किसी पल की याद में जाए,
हर पल किसी पल को याद आए,
पल में जीवन भंग हो जाए,
पल में नव जीवन मिल जाए,
तो आओ पल में जीवन जी लें,
अगले पल को इस पल से सजायें !

हे मन मेरे हार ना जाना...

युद्ध का बिगुल बज चुका है
मेरा रथ भी सज़ चुका है
तू सारथी है इस रथ का,
मेरे बल को तुझे बढ़ाना.

मोह माया की बस्ती में,
काई भ्रम जालों की छाया है
मोह त्याग कर तुझे है बढ़ना,
जालों में कहीं उलझ ना जाना

पथ में शत्रु हैं आते जाते,
हर शत्रु से लड़ना होगा,
धीरज तुझको धरना होगा,
दुर्बल हो कर डोल न जाना

पथ में दुखों की कालीमा,
अंधकार बन छा जाएगी,
सूर्यास्त के भ्रम में रथ को
रोक न देना, थम न जाना

युद्ध में छोटी सी विजय से,
माना आशा बढ़ जाती है
अति-प्रसन्नता भी विष है पर
लक्ष्य को नही है तुझे भुलाना

युद्ध भूमि पर सब शत्रु हैं
एक तेरा ही साथ मुझे है
मेरे जीवन के अश्वो को,
तुझे है सही दिशा दिखाना

तू हारा तो, हार है मेरी,
तू जीता जो, मेरी विजय है
सदा स्वयं को तुझे जिताना,
हे मन मेरे हार ना जाना,
हे मन मेरे हार ना जाना

साँझ

नभ नीला, छटा ये सुंदर,
गुनगुनती शाम ये गहरी,
कह रही है मुझसे जैसे,
बीत चुकी है अब दोपहरी.

अब हवा हो रही आधीर है
मेरे बालों को सहलाने को,
सांध्या गीत गा रहे हैं पंछी,
मन को मेरे बहलाने को.

कहीं दूर से कोई सरगम,
मन के तार बजाती आए.
आसमान में बनते चेहरे,
दूर ही से मुस्कुराएँ.

हरे भरे ये पेड़ हैं हिलते,
हरितिमा के छंद गाते,
दिन है डूबा, घर चलो अब,
पंछी यूँ हैं चहचहाते

मुंडेर पैर बैठा है कौवा,
इधर-उधर उड़ता मंडराता,
उछल-कूद करता वो हँसता,
आज़ादी का गीत है गाता.

आज जो सोचा तो लगा यह,
प्यारे ये पल क्यूं ना जिलाए,
क्यूं ज़िंदगी से ख़फा थी रहती,
ख़ुश होने को इतने दिन क्यूं लगाए?

पुकार...

यह पुकार है उस मानव को, आग में जल ख़ुद लौह बना जो जग निर्माण की नीव को लेकर, वर्षों तक रहा अटल खड़ा जो क्यों क्षीण हो रही है आज, वह अंत-करण में बहती ऊर्जा? क्यों झुकी है विजय पताका, क्यों डर है जो बदल गरज़ा? सूर्य चंद्र भी देख वही हैं वही दिशाएं देख रही हैं सूर्य चंद्र से ले प्रकाश और रंग बन के चारों ओर बिखर जा मिथ्या बोध में भटकता रहेगा, कब तक शक्ति की तलाश में कभी झाँक कर देख तो ख़ुद में, पहचान उसे, धर और सँवर जा. यह ना सोच की कोई आकर तुझको सागर पार कराए, मझधार में बन स्वयं का साथी, बना पतवार ख़ुद और उबर जा गर्ज गर्ज कर ये बदल जो तुझको हरदम डर दे जाते, आज गर्ज कर बरस ज़रा तू, तूफ़ान बनकर आज उभर जा हटा दे हर डर जीवन से, मिटा दे हर काला बादल लक्ष्य भेद का प्रण के कर बढ़, युद्ध भूमि पर आज उतर जा मन है तेरा कृष्ण सारथी, खड़ा है तेरे रथ को संभाले समझ जो गीता वा कहता है दुर्बल होकर यूँ ना बिखर जा वही करेगा मार्ग प्रशस्ती, वही तुझे नया जीवन देगा उठा ले गाँडीव हे अर्जुन, कर ले कृष्ण को साथ जिधर जा तोड़ दे अपनी सब दीवारें, नैनों को आशा प्रकाश दे, खोल हृदय के पट सारे, और फिर देखना, हर कण देगा तुझको ऊर्जा, हर कण देगा तुझको ऊर्जा ! !!

हे मेघ आज गरज़ो बरसो !

हे मेघ, आज गरज़ो, बरसो,
किसी संवेदना की याद रख,
आज न तरसाओ और न तरसो,
हे मेघ आज गरज़ो बरसो !

तप उठी है वसुधा दिल में लिए अंगार,
ख़त्म ना होता ज्वार,
भीषण वेदना का उदगार,
भूमि के जीवन का तुम आज करो उद्धार,
तृप्ति की एक बूँद को तरसी, बीत गाये बरसों!!!

हे मेघ, आज गरज़ो, बरसो,
किसी संवेदना की याद रख,
आज ना तरसाओ और ना तरसो,
हे मेघ आज गरज़ो बरसो !

हर नेत्र है व्याकुल, भूखा मन, भूखा है पेट,
सूखें अधरों पर एक ममता की बूँद दे दो भेट,
देखो युवा हुआ वृद्ध, गया चिता पर लेट,
वही धरा विदरूप हुई जो सुवर्ण थी कल परसों,

हे मेघ, आज गरज़ो, बरसो,
किसी संवेदना की याद रख,
आज ना तरसाओ और ना तरसो,
हे मेघ आज गरज़ो बरसो !

तुम ना बरसाओ नयन-नीर, आश्रू तो अपार हैं यहाँ,
तुम ना बरसाओ रक्त, हरसू रक्त की तो धार है यहाँ.
हर बात पर रोने-रूलाने वालों का तो अंबार है यहाँ,
यहाँ नही बस प्रेम, प्रेम की वह लहराती सरसों,

हे मेघ, आज गरज़ो, बरसो,
किसी संवेदना की याद रख,
आज ना तरसाओ और ना तरसो,
हे मेघ आज गरज़ो बरसो !

रू-ब-रू

रूह-ए-मौसिक को फिर से जगाया जाए,
इस सुहानी धूप में फिर से नहाया जाए,
क्या कुछ नही बोलेगा हर मंज़र मेरे दोस्त,
गर अपनी सदा को ख़ामोशी से सुनाया जाए.

चुन -2 के धूप के टुकड़ों को फिर संजोया जाए,
खुर-द से फ़लख पर हँसी का बीज फिर बोया जाए,
रह सकेगी सुबह कैसे दूर आख़िर रोशनी से,
हर चमकते चाँद को आज फिर से खोया जाए.

बेकरारी और सबब दिल से बहाया जाए,
ग़म के चश्मों को अकेला सूरज दिखाया जाए,
है कहाँ खुदाई कहो हँस के जीने के बिना,
तमन्नाओं का पुलिंदा आज फिर सजाया जाए.

सख़्त दिल को आज नर्म बूँदों से धोया जाए,
ज़ख़्म-ए-दिल को आज तबस्सुं में डुबोया जाए,
गोया की ज़िंदगी का मक़सद नही पाएँगे यूँ,
फिर भी क्यूं कर ज़िंदगी को काँटा चुभोया जाए?

रह गया जो दूर, उस सोज़-ए-ख़ुश को पुकारा जाए,
बह गया जो सुरूर फिर दिल में उभरा जाए,
रेत नही पानी बन के बह जो जाओ तुम कभी,
क्यूँ कभी रुकने का फिर ढूँढा सहारा जाए?

मैं अविरल बन जाऊँ ..

तेरी धुन में गाऊँ,
तेरा गीत हो जाऊँ,
रुकने ना पाऊँ कहीं
बह बह कर तर जाऊँ ..
मैं अविरल बन जाऊँ ..

रोक ना पाए राह मेरी,
हो पहाड़ चाहे कोई,
शक्ति की बौछार बनूँ,
बह बह कर तर जाऊँ ..
मैं अविरल बन जाऊँ ...

शोर मचाता युद्ध हो,
या हो क्रंदन शत्रु का,
वीर-तन का रक्त बनूँ,
बह बह कर तर जाऊँ..
मैं अविरल बन जाऊँ ...

चाहे हो उदगार बड़ा,
हो अचल कोई ज्वार बड़ा,
श्रद्धा का अश्रु बनूँ,
बह बह कर तर जाऊँ..
मैं अविरल बन जाऊं...

तेरी धुन में गाऊं,
तेरा गीत हो जाऊँ ,
रुकने ना पाऊँ कहीं
बह बह कर तर जाऊँ ..
मैं अविरल बन जाऊँ ..

मरुस्थल....

नितांत सूनापन, सूखी रेत के कण,
घनघोर आंधी तूफ़ान, आशा मरणासन्न,
कोई भेद नही-बचपन हो या यौवन,
वृद्धावस्था हो या जीवन का अंतिम क्षण.

न स्थिर, न अस्थिर, न स्थायी, न अस्थाई
न श्वेत, न अश्वेत, न स्मरण, न विस्मरण,
न सुख, न पीड़ा, न मल्हार, न यमन,
न नींद, न स्वप्न, न आदि, न अंत.

मरुस्थल है यह तो, क्या तुम नही जानते?
यहाँ पर ज़हर पीना ही होगा,
फिर भी तुम्हे जीना ही होगा !
अभी तो मृग-मरीचिका तुम्हे रिझाएगी,
रुग्णता तुम्हे मारेगी, प्यास तुम्हे बुझाएगी।

रेतीली हवा के थपेड़े दूर-दूर ले जाएँगे
तपते सूर्य की अग्नि के संग वर्षा के स्वप्न जलाएँगे,
तुम मारे-मारे भटकोगे, काँटों से छ्हील जाओगे,
कोई पुष्प ना मिलेगा, बस रेत ही रेत पाओगे. zz

फिर सूरज करेगा कोई इशारा, फिर रात बुरी हो जाएगी,
फिर कहीं से कोई आवाज़ दूर तुम्हे बुलाएगी,
ढूँदते हुए फिर खो जाओगे, ना चाह कर भी रो जाओगे,
फिर याद किसी की आएगी, नींद भी ले जाएगी,
चाँद की किरणें भी शायद तुम्हे जला जाएँगी,
इस तरह भटकते हैर दिन बीत जाएगा,
सुबह का सूरज आस देकर, जाते-2 उसे छीन ले जाएगा.

क्या हुआ? क्या बस इतने से ही थक गये हो?
अभी तो तुम्हे राह ढूँदना है !
अभी तो अपनी थाह ढूँदना है !
अभी तो पदचिन्हों को गहरा है करना !
अभी तो अपनी चहों पर पहरा है धरना !
जानते हो ना, मरुस्थल है यह?
यहाँ पर ज़हर पीना ही होगा,
फिर भी तुम्हे जीना ही होगा. !

क्यों?
क्योंकि यहीं से थोड़ी दूरी पर होता है तर्पण,
प्राणों की तृष्णा का, पीड़ा का,होता है भंजन,
वहीं पर है एक प्यारा स्वजन,
वहीं पर होगा समय का मंथन,
वहाँ ना होगा आत्मा का क्रंदन,
वहाँ ना होगा आशा का मर्दन.

हे मित्र, वहाँ है तुम्हारा असली संसार !
वही तो है दुनिया के आर-पार !
ना घबरओ, ना थाम जाओ,
वह समय भी आएगा,
जब तुम इस मरुस्थल को दूर से निहार कर मुस्कुराओगे,
यह भी कभी तुम्हे सिर्फ़ याद ही आएगा। !

मैं

मैं सत्य नही, सत्य की प्रतिमूर्ति हूँ,
मैं मिथ्या नही, मृदा से बनी विभूति हूँ,
सुदूर सुने जाते हैं मेरे शब्द,
और फिर बह कर आता है अर्थ,

सुबह मुझसे मिलने को रोज़ आती है,
रोज़ सोने का सूरज दे कर जाती है
मुझे कांति चंद्र-रश्मि से मिली है उपहार,
मेरे स्वपनों से धूमिल रजनी ने किया है प्यार

मुझे श्वांस लेना भी नही आता,
ना ही सत्य असत्य है ज्ञात मुझे,
मुझे तो बस आता है न्योछावर होना,
प्रेम-निर्झर की मिली है सौगात मुझे

मैं सृजन की प्रेरणा हूँ, हूँ किसी की प्रीत भी,
कल्पनाओ का वास्तव्य हूँ, हूँ किसी का गीत भी
मैं धरा सी धीर हूँ, हूँ ज्वाला सी क्रुद्ध भी,
मैं प्रणव सी शांत हूँ, हूँ पुष्प सी शुद्ध भी |

कभी नैनों से, कभी अंबर से गिरी,
भावनाओं के समुद्र में कहीं,
जीवन के हर मोड़ पर मैं तो,
केवल पानी सी बही !

तुम मुझे कोई नाम दो या अनामिका कह दो,
मैं केवल तुम्हारी ही होने वाली कहाँ?
मैं निरंतर बहने वाली सरिता ही रहूंगी,
मैं कभी ना ख़त्म होने वाली कविता ही रहूंगी,

मेरे हृदय में द्वार बहुत हैं,
कुछ खुले, कुछ बंद हैं ,
दुग्ध सी भावनओ की गंगा,
नित अविरल स्वच्छंद हैं ,

मैं कौन हूँ, कौन नही, यह है
हे मित्र, एक अप्रतिम भेद,
ज्ञान और विज्ञान से दूर ही रहती हूँ,
प्रेम में ही पाती हूँ मैं तो सारे वेद !