मरुस्थल....

नितांत सूनापन, सूखी रेत के कण,
घनघोर आंधी तूफ़ान, आशा मरणासन्न,
कोई भेद नही-बचपन हो या यौवन,
वृद्धावस्था हो या जीवन का अंतिम क्षण.

न स्थिर, न अस्थिर, न स्थायी, न अस्थाई
न श्वेत, न अश्वेत, न स्मरण, न विस्मरण,
न सुख, न पीड़ा, न मल्हार, न यमन,
न नींद, न स्वप्न, न आदि, न अंत.

मरुस्थल है यह तो, क्या तुम नही जानते?
यहाँ पर ज़हर पीना ही होगा,
फिर भी तुम्हे जीना ही होगा !
अभी तो मृग-मरीचिका तुम्हे रिझाएगी,
रुग्णता तुम्हे मारेगी, प्यास तुम्हे बुझाएगी।

रेतीली हवा के थपेड़े दूर-दूर ले जाएँगे
तपते सूर्य की अग्नि के संग वर्षा के स्वप्न जलाएँगे,
तुम मारे-मारे भटकोगे, काँटों से छ्हील जाओगे,
कोई पुष्प ना मिलेगा, बस रेत ही रेत पाओगे. zz

फिर सूरज करेगा कोई इशारा, फिर रात बुरी हो जाएगी,
फिर कहीं से कोई आवाज़ दूर तुम्हे बुलाएगी,
ढूँदते हुए फिर खो जाओगे, ना चाह कर भी रो जाओगे,
फिर याद किसी की आएगी, नींद भी ले जाएगी,
चाँद की किरणें भी शायद तुम्हे जला जाएँगी,
इस तरह भटकते हैर दिन बीत जाएगा,
सुबह का सूरज आस देकर, जाते-2 उसे छीन ले जाएगा.

क्या हुआ? क्या बस इतने से ही थक गये हो?
अभी तो तुम्हे राह ढूँदना है !
अभी तो अपनी थाह ढूँदना है !
अभी तो पदचिन्हों को गहरा है करना !
अभी तो अपनी चहों पर पहरा है धरना !
जानते हो ना, मरुस्थल है यह?
यहाँ पर ज़हर पीना ही होगा,
फिर भी तुम्हे जीना ही होगा. !

क्यों?
क्योंकि यहीं से थोड़ी दूरी पर होता है तर्पण,
प्राणों की तृष्णा का, पीड़ा का,होता है भंजन,
वहीं पर है एक प्यारा स्वजन,
वहीं पर होगा समय का मंथन,
वहाँ ना होगा आत्मा का क्रंदन,
वहाँ ना होगा आशा का मर्दन.

हे मित्र, वहाँ है तुम्हारा असली संसार !
वही तो है दुनिया के आर-पार !
ना घबरओ, ना थाम जाओ,
वह समय भी आएगा,
जब तुम इस मरुस्थल को दूर से निहार कर मुस्कुराओगे,
यह भी कभी तुम्हे सिर्फ़ याद ही आएगा। !