पात


एक सूखे पेड़ पर एक छोटी सी कोंपल आई,
जगमगाते सूर्य-स्वर्ण में उसने ली एक अंगडाई,
झूमती महकी हवाएं उसको सहलाने लगी,
चहचहाती गाती चिड़ियाँ मन को बहलाने लगी,
धीरे-धीरे वह एक हरित पात बन गई,
जीने की अभिलाषा ही दिन व रात बन गई,
हर क्षण उडान का स्वप्न, उसने प्राणो में संजोया, 
बसंती हवा के इक झोंके से, प्रेम का एक बीज बोया, 
झोंके ने कहा -"आओ तुम्हें उडना सिखाऊँ ,
मौन जीवन में तुम्हारे, कुछ प्रेम के सुर बजाऊँ !"
हो सवार स्वप्नों के रथ में पात ने जब कदम बढाया,
वृक्ष से सम्बन्ध टूटा, मन दुःख से सकुचाया,
अश्रुपूरित वृक्ष ने हँसते - हँसते दिया आशीष,
रक्तरंजित ह्रदय ने भाग्य समझ पी लिया था विष,
यहाँ पितृ से पृथक होकर सूखने लगी थी वह पात,
कभी यहाँ तो कभी वहाँ, उडती गिरती सहती आघात,
एक दिन जब थपेड़े खाती, पहुंची वह वृक्ष के पास ,
सूखे वृक्ष को मरणासन्न पा , टूट गयी उसकी हर आस,
वृक्ष धराशायी हुआ, एक कुल्हाड़ी के वार से, 
हाय कोई घर न बचा, अब क्या था लेना संसार से !
अभी जल विहीन था मन, अश्रु भी न निकल पाया,
तभी हवा का झोंका आया, फिर से सूखी पात को उडाया !
उस पात को बड़े जतन से, दो नन्हे हाथों ने लिया थाम,
निश्छल प्रेम की शीतलता से , दुखों पर अब लगा विराम !
अब नहीं थी कोई उलझन, अब नहीं था मन विह्वल,
अब शुष्क नहीं था जीवन, ह्रदय भी हो गया सजल !