कहाँ?

शाम से रात तक, रात से सुबह तक,
दौड़ती साँसों न जाने किधर को चली जाती हैं,
कभी सोचती नही, कभी ठहरती नहीं,
कभी बिगड़ती नहीं, कहीं संवरती नही,
कहीं घूमती नही, कभी विचरती नही,
कहीं खोती नहीं, कभी उभरती नही,
एक लय में बस चली जाती हैं,
कहीं एक ही तरफ़, एक ही दिशा में,
जैसे कोई उनका इंतज़ार करता है...
पर कहाँ?

थकान?

कभी सोचा है भला ?
चेहरे की रौनक पर लकीरें कैसे पड़ गई?
कैसे मुस्कुराहट को सीलन जकड गई?
कैसे मिठास में चीनी कम पड़ गई?
कैसे गर्दन ठूंठ सी अकड़ गई?

कैसी है यह थकान? क्यूँ आलाप में ज़ोर नहीं?
क्यूँ है ऐसा लगता की होगी न भोर कहीं?
क्यूँ गिन कर मीलों की दूरी है सर झुक गया?
क्यूँ यह सब सोच कर ही कारवाँ है रुक गया?

हे चिंतित मित्र, ख़ुद को झंझोड़ !
कदम बढ़ा, विचारों का गहरा जाल तोड़ !
यह थकन नही, मृगमरीचिका है !
जान ले, कुछ भी न यहाँ टिका है !

रुकने वाले को समय घसीट कर लायेगा,
हाथों में, पावों में, खरोंचे लगाएगा,
दिल में ज़ख्म लगाकर आना पड़ेगा,
बढ़ते बढ़ते दर्द भी छुपाना पड़ेगा !

जब छोडेगा हर जगह ठहर जाना,
जब खोलेगा बंधन का ताना बाना,
जब गायेगा बहता हुआ तराना,
तभी पायेगा एक अनमोल खजाना,

पानी की तरह जो बह बह कर आगे,
समय की रफ्तार के संग संग भागे,
वही स्वतंत्र है, आनंद की डोर पर,
सागर की गहराई में, अम्बर के छोर पर !

रंग बदलते चेहरों के बीच, अपना रंग खिलाओ !
विजय निश्चित है मानो, झूमते जगमगाओ !
थकान को मिटाओ, शक्ति को जगाओ !
दर्द के झूठ को तोड़ो, बढ़ते चले जाओ !







साँस..

तंग ज़िन्दगी के झुरमुट से, एक छोटी सी साँस निकल आई,
थोडी सी महक में नहाई, थोडी रंगों में मुस्काई,
कुछ देर इधर उधर डोलती, कुछ कूद फांद कर आई,
बूंदों को छुआ, सागर को छुआ, बिजली को छुआ, बादल को छुआ,
एक पल में जाने कितने सितारों से खेली परछाई,
...और फिर, सांझ के डर के मारे, चुपचाप घर लौट आई...