मन ने कुछ कहा, मैने सुन लिया, मन ने चाहा, और मैने लिख दिया, नैनों में मन की कथा - स्मृति, मैं 'मानसी', यह मेरी 'मनस्कृति'!
पुकार...
यह पुकार है उस मानव को,
आग में जल ख़ुद लौह बना जो
जग निर्माण की नीव को लेकर,
वर्षों तक रहा अटल खड़ा जो
क्यों क्षीण हो रही है आज,
वह अंत-करण में बहती ऊर्जा?
क्यों झुकी है विजय पताका,
क्यों डर है जो बदल गरज़ा?
सूर्य चंद्र भी देख वही हैं
वही दिशाएं देख रही हैं
सूर्य चंद्र से ले प्रकाश
और रंग बन के चारों ओर बिखर जा
मिथ्या बोध में भटकता रहेगा,
कब तक शक्ति की तलाश में
कभी झाँक कर देख तो ख़ुद में,
पहचान उसे, धर और सँवर जा.
यह ना सोच की कोई आकर
तुझको सागर पार कराए,
मझधार में बन स्वयं का साथी,
बना पतवार ख़ुद और उबर जा
गर्ज गर्ज कर ये बदल जो
तुझको हरदम डर दे जाते,
आज गर्ज कर बरस ज़रा तू,
तूफ़ान बनकर आज उभर जा
हटा दे हर डर जीवन से,
मिटा दे हर काला बादल
लक्ष्य भेद का प्रण के कर बढ़,
युद्ध भूमि पर आज उतर जा
मन है तेरा कृष्ण सारथी,
खड़ा है तेरे रथ को संभाले
समझ जो गीता वा कहता है
दुर्बल होकर यूँ ना बिखर जा
वही करेगा मार्ग प्रशस्ती,
वही तुझे नया जीवन देगा
उठा ले गाँडीव हे अर्जुन,
कर ले कृष्ण को साथ जिधर जा
तोड़ दे अपनी सब दीवारें,
नैनों को आशा प्रकाश दे,
खोल हृदय के पट सारे,
और फिर देखना,
हर कण देगा तुझको ऊर्जा,
हर कण देगा तुझको ऊर्जा ! !!
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