शोर

शोर, शोर, बस शोर ही शोर,
आत्मा भी अब बहरी हो चुकी है,
घनघोर अंधेरे में भी सन्नाटा नही बस शोर है,
सबकुछ सुनकर भी जैसे कुछ न सुना हो,
आसपास जैसे ताना बाना बुना हो,
साँस लेना भी मुश्किल है,
आसपास हर कोई है, पर पास कोई नही, बस शोर है
हर नई सुबह से नई उमंग तो मिलती है,
पर शोर में खो जाती है कहीं,

आँखें पथरा गई हैं,
ह्रदय किसी अनजान कोने में, सहमा सा, चुपचाप धड़क रहा है,
सुबह, शाम, रात में तो कोई अन्तर ही नही बचा ,
अन्दर बाहर ऊपर नीचे, चारों ओर, बस शोर ही शोर !

कहीं किसी का रुदन, सिसकियों का शोर,
कहीं किसी का भड़कना, धमकियों का शोर,
कहीं किसी का चिढ़ना, चिल्लाहट का शोर,
कहीं किसी की कुटिलता, घृणा, द्वेष का शोर,
कहीं किसी का गर्व, अवमानना का शोर,
कहीं किसी का प्रेम, मतभेदों का शोर,
कहीं किसी की प्रगति, ईर्ष्या का शोर,
कहीं किसी की दुर्गति, उपेक्षाओं का शोर ,
कहीं किसी का भाषण, विवेचनाओं का शोर,
कहीं जानवरों का क्रंदन, मूकता का शोर,
कहीं किसी का स्वार्थ, अधीरता का शोर,
आत्मा का बिलखना, करुण पुकार का शोर,

कानों को बधिर करता,
आँखों को बोझल करता,
पैरों को काट देता,
पदचिन्हों को मिटा देता,
भावनाओं को कचौटता,
सपनों को रोंद्ता,
ह्रदय को टुकडों में बाँटता,
टुकडों को भी काटता,
आशाओं को जलाता,
आत्मा को रुलाता,

यह शोर, आख़िर आया कहाँ से?
कौन मचा रहा है?
मैं, तुम, या हम सब?
क्यूँ नही छोड़ देते इस पापी को जिसे हमने ही अपनाया है?
क्यूँ नही मोड़ देते इस बवाल को जिसे हमने ही उठाया है?

इस शोर को मिटाना होगा, इस दानव को मिटाना होगा,
नहीं तो इस शोर में खो जायेंगे हम सब, यह प्रकृति,
यह इश्वर की अनमोल कृति,
सब कुछ भांप बन कर उड़ जाएगा !
और बच जाएगा यह शोर,
अपनी भूख मिटाने के लिए किसी और सभ्यता की तलाश में !