मैं

मैं सत्य नही, सत्य की प्रतिमूर्ति हूँ,
मैं मिथ्या नही, मृदा से बनी विभूति हूँ,
सुदूर सुने जाते हैं मेरे शब्द,
और फिर बह कर आता है अर्थ,

सुबह मुझसे मिलने को रोज़ आती है,
रोज़ सोने का सूरज दे कर जाती है
मुझे कांति चंद्र-रश्मि से मिली है उपहार,
मेरे स्वपनों से धूमिल रजनी ने किया है प्यार

मुझे श्वांस लेना भी नही आता,
ना ही सत्य असत्य है ज्ञात मुझे,
मुझे तो बस आता है न्योछावर होना,
प्रेम-निर्झर की मिली है सौगात मुझे

मैं सृजन की प्रेरणा हूँ, हूँ किसी की प्रीत भी,
कल्पनाओ का वास्तव्य हूँ, हूँ किसी का गीत भी
मैं धरा सी धीर हूँ, हूँ ज्वाला सी क्रुद्ध भी,
मैं प्रणव सी शांत हूँ, हूँ पुष्प सी शुद्ध भी |

कभी नैनों से, कभी अंबर से गिरी,
भावनाओं के समुद्र में कहीं,
जीवन के हर मोड़ पर मैं तो,
केवल पानी सी बही !

तुम मुझे कोई नाम दो या अनामिका कह दो,
मैं केवल तुम्हारी ही होने वाली कहाँ?
मैं निरंतर बहने वाली सरिता ही रहूंगी,
मैं कभी ना ख़त्म होने वाली कविता ही रहूंगी,

मेरे हृदय में द्वार बहुत हैं,
कुछ खुले, कुछ बंद हैं ,
दुग्ध सी भावनओ की गंगा,
नित अविरल स्वच्छंद हैं ,

मैं कौन हूँ, कौन नही, यह है
हे मित्र, एक अप्रतिम भेद,
ज्ञान और विज्ञान से दूर ही रहती हूँ,
प्रेम में ही पाती हूँ मैं तो सारे वेद !

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