अंतर्व्यथा

मन के कोने में बैठी, छोटी सी इक प्यास थी,
जीने की अभिलाषा थी, उड़ने की आस थी,
कैसी प्यारी थी वो बातें, कैसा अनूठा प्यार था,
भावना थी, हृदय था, समर्पण अपार था ।
जब कोई डर सताता, आँचल में छुप जाती थी,
उछल कूद कर हँसते गाते, कितना मैं बतियाती थी,
कांटो पर चलते थे वो, फूलों पर मैं सो जाती थी,
जीवन के हर दुःख को सह कर, वो हरदम मुस्काते थे,
मुझे कष्ट से बचा बचा कर, प्यार से सहलाते थे,
धूम धाम से  विदा किया जब, मन ही मन  रो जाते थे,
अपने ह्रदय के टुकड़े को वे, अपना कह न पाते थे !
आज परायी हो चुकी हूँ, पर कैसे मन मानेगा ?
इस नीरस जीवन का सत्य अब कैसे कोई जानेगा?
जिनके सहारे चलना सीखा, आज स्वयं चल न पाते हैं ,
बुढ़ापा है पर लाठी नहीं है, मन ही मन दुःख पाते हैं ,
कैसी है ये रीत कि बेटी अपनी होकर भी अपनी नहीं ?
कैसा है ये गीत कि शब्द है पर स्वर नहीं..
कैसा है ये समाज जिसमें स्त्री को ही त्याग करना है ..
क्यूँ हर रिश्ते की लिए उसे ही पल पल मरना है ..
जब राम राज्य भी स्त्री को न्याय ना दे सका,
किस ईश्वर से आशा बांध उसे जीते रहना है ?