संगीत

प्राणो का आधार यही है,
जीवन की झंकार यही है,
हर कण में संगीत बसा है,
परमेश्वर का प्यार यही है

सात सुरों की मधुरिमा का,
अप्रतिम विस्तार यही है,
भावनाओं की अभिव्यक्ति का,
स्नेहमय संसार यही है,

हृदय का स्पंदन हृदयंगम हैं,
श्वांस में सुरों का संगम है,
हर तार की हर तरंग में,
जीवंतता की नयी उमंग है

तमस को ज्योति स्वरूप दे,
ऐसा 'दीपक' राग यही है,
प्राणों की त्ृष्णा को तृप्ति दे,
राग 'मेघ मल्हार' यही है

धर्म जाति में भेद ना जाने,
संकीर्णता का उपचार यही है,
प्रेम ही बाँटे, प्रेम सिखाए,
भावनाओं का अंबार यही है

मनुजता का आभूषण है
मनुज का उद्धार यही है
असहिष्णुता की आँधी में,
अचल अडिग दीवार यही है

सुख की आँधी, दुख की वर्षा,
हर मौसम का प्यार यही है
जीवन के हर मोड़ की व्याख्या,
करता हर 'आकर' यही है

जीवन सीमाओं से मुक्त है
क्षितिज के उस पार यही है
आत्म-परमात्म के संबंधों का,
विस्तृत आधार यही है

ज़ीवन की लयबद्धता का,
सृजन का सब सार यही है
संगीत से जीवित हर कण है
संगीत बिना संसार नही है !

तेरी राह देखूं, तेरी चाह देखूं

हृदय के अंतर में, तेरा रूप देखूं,
बूँद और समुंदर में, तेरी धूप देखूं,

फूलों में कलियों में, तेरा रंग देखूं,
साँसों की गलियों में, तेरी तरंग देखूं,

नदियों में झरनों में, तेरी मस्ती देखूं,
पर्वत की छोटी पे, तेरी हस्ती देखूं,

सूरज में चंदा में, तेरी रोशनी देखूं,
रातों की गहराई में, तेरी शांति देखूं.

सुख में और दुख में, तेरा ही नेम देखूं,
भीड़ में, एकाकी में, तेरा ही प्रेम देखूं.

हर तरफ़ हर जगह पर तू ही तू है छाया,
मेरे कण-कण को तूने ही, प्रेम से सजाया.

तेरे इस सागर में हूँ, उमड़ी- घुसड़ी सी एक लहर,
लौट कर तुझमे समा जाऊं, सोचती मैं वह पहर.

विचलित हो तुझको खोजूं, क्यूं ना तू अपनाता मुझे,
क्यूं किया है ख़ुद से अलग, क्यूं है तू भरमाता मुझे?

तेरी ही एक बूँद हूँ प्यासी, तृप्ति हो कर भी उदासी,
तेरे रूप में मिल जाने की बस में बात देखूं.

तेरी राह देखूं, तेरी चाह देखूं
तेरी राह देखूं, तेरी चाह देखूं

मैं अब चली हूँ सत् की डगर...

मैं अब चली हूँ सत् की डगर,
ना है रोग मुझको, ना कोई है डर,
माता सी धरती, पिता सा अंबर,
सत् का है रास्ता, सत् का सफ़र !

पहले थी गिरती, उठती थी, चलती,
ढूँदती थी बस लक्ष्य को नज़र,
थक हार बैठी, जब झुका यह सर,
तब पाया मैने आप ही को गुरूवर् !

जीवन में मेरे फिर हुई भोर,
आपने दिखाई सुनहरी वह डोर,
दिया मेरे हाथ में उसका एक छोर,
थामे उसे मैं चलूँ लक्ष्य ओर.

बढ़ती हूँ आगे, मन गीत गाये
ना सुध कोई मुझे कौन आए, कौन जाए,
आपको ही देखे, यह मन मुस्कुराए,
ऐसे ही मेरा हृदय प्रेम पाए.

जानूँ ना कैसी है आगे डगर यह,
इसी डोर को थामे चलते है रहना
और अगर कभी जो क़दम डगमगाए,
मुझे देख लेना, है इतना ही कहना.

मैने है छोड़े भ्रम के उजाले,
मुझको नही रास आते ये प्याले,
मुझे प्यास है ज्ञान की, तुम हो तृप्ति,
मुझे है मुक्त होना, तुम ही से मुक्ति.

मैं अब चली हूँ सत् की डगर,
ना है रोग मुझको, ना कोई है डर,
माता सी धरती, पिता सा अंबर,
सत् का है रास्ता, सत् का सफ़र !

स्वप्न

सपनों की ऊँची उड़ान है,
सपनों का सुंदर मकान है,
स्वप्न है जल से अविरल निर्मल,
स्वप्न हैं भावनाओं से कोमल.

मेरी पलकों की छाया में,
एक स्वप्न यूँ ही आ के बसा था,
मैं चंद्रिका बन छाई थी,
चहूं ओर यही दृश्य रचा था.

सिमट के जैसे सारी वसुधा,
मुझे देखने को आई थी,
कण-कण झूम रहा था कांतिमय,
धवल चाँदनी घन छाई थी.

अहा ! कितनी सुंदर थी मैं !
मुझसा कोई ना वहाँ था उज्जवल !
हर मुख पर मेरा प्रकाश था !
मुझसे दीप्तिमान था हर पल !

तभी कहीं से मंजुल इक स्वर,
मन के तार बजाता आया,
रूप रंग का भान था छूटा,
साँसों में वह आके समाया.

ईर्ष्या-ज्वलंत ज्वाला ने,
मुझे अंदर तक था भस्म किया,
जल-जल कर कराहते ,
मेरे 'अहं' ने उससे प्रश्न किया -

" हे पक्षी ! क्या तेरे चक्षु,
प्रकाश में अंधुक हो जाते?
तू जो मुझको देख ही लेता,
तेरे 'स्वर-कण' भी धुल जाते !

तेरा रंग है कला,
तभी तू सामने आने से डरता है,
मैं हूँ सुंदर उज्ज़वला, सो,
मुझको अनदेखा करता है ? "

पक्षी के काले चेहरे पर
उभरी एक ज्योति निश्चल,
उज्जवल रवि-किरण सा प्रस्फ़ुट
उत्तर मधुरम आया उस पल -

"हे चंद्रिका, तू है सुंदर,
तेरी विभा है सबसे निराली,
पर तेरी 'उजली छाया' भी,
बदलेगी ना देह ये काली.

मेरी मंजुल स्वर गंगा में,
बहने वाली रूप-गर्विता,
देख है डूबा हर कण तेरा,
सुर-सागर में बन के सरिता.

क्या तुझको है विदित नही यह,
कहाँ से आई तेरी रोशनी?
क्या तू भूल गयी है
प्राची बन जाएगी तेरी भेधिनी?

सूर्य की किरणों मे धुल कर,
तू हो जाती है पल में ओझल,
पर मेरे सुरों की गंगा,
बहती तब भी यूँ ही कल-कल !

किस काम की तेरी कांति,
जिससे सत्य उभर ना पाता,
चकाचौंध से तेरी कह,
क्या जीवन किसी का सुधर भी पाता?

अर्ध-सत्य है भूलभुलैया,
भटक रही है तू बेबान,
हृदय को अपने धवल कांति दे,
त्याग भी दे अब तू अभिमान !

क्यूं आई है जन्म तू लेकर,
पूरा करने कौन सा काम?
पहचान कौन है तू?
कहाँ है तेरा ईश्वर विध्यमान !

ढूँढ हृदय के हर कोने में,
कहाँ छुपी वह ज्योति महान
कर जीवन को सिद्ध, पहुँच जा,
अपने सत्य के ज्योति धाम !

जिसने रचा मुझको-तुझको,
किया रूप-सुर से धनवान,
जिसने ज्ञान का स्रोत बनाया,
क्यूं ना करे उसका ही ध्यान ! "

उन शब्दों ने मेरे
अंतर-घट को था झंझोड़ दिया,
एक तीव्र किरण सी उभरी,
जिसने स्वप्न को तोड़ दिया !

पक्षी, सुर, कांति व चंद्रिका,
हो चुके थे सारे ओझल,
पर वे शब्द अब भी गूँजित हो,
मचा रहे हैं मन में हलचल.

स्वप्न था सुंदर, स्वप्न था कोमल,
स्वप्न ने था ज्ञान दिया,
नमन है शत-शत उस ईश्वर को,
जिसने स्वप्न में भान दिया !