कश-म-कश

गुम गए बीते वो लम्हे, यादों के पिटारे से,
धुंध में लिपटे हुए थे, ख्वाब कुछ प्यारे से,
जब न ढूँढा था उन्हें, जब थी गुम इक दौड़ में,
जब थी खो चुकी ज़िन्दगी, न जाने किस होड़ में,
तब नही सोचा की मुड के देखना भी रीत है,
आगे ही साज़ नही , पीछे भी जुड़े कुछ गीत हैं,
जिस्म तो है आ गया, रूह कहाँ छूट गई?
गाते गाते ये अचानक लय कहाँ टूट गई?
आज अपनी ही धुनें, क्यूँ परायी हो गयीं?
आज अपने आईने से क्यूँ लडाई हो गई?
कहाँ जाऊं? किससे पूछूं? कौन ये बतलायेगा?
शायद यह सवालों का लम्हा भी यूँही खो जाएगा |

गीत

एक फलक पर आसमान , दूजे पर है साँस की डोर,
दोनों को समेट कर आती ज़िन्दगी की एक हिलोर,
सपनो के रंगीन वो साये याद दिलाती है हवा,
नींद है टूटी पर न छूटी आस की एक बूँद दवा,
उमड़ घुमड़ कर काली बदरी कहती है कुछ गरज कर,
ठंडी-ठंडी बूँदें सुनाती ईश-गीत बरस कर,
साज़ है ठहरे पर है गाती दिल में ठहरी एक भोर,
उठो गाओ,, गुनगुनाओ, जिंदगी देती है ज़ोर !

हे मित्र तुम क्यों रोते हो?

हे मित्र तुम क्यूं रोते हो?
क्यों माया की भूल-भुलैया में खोते हो?
क्यों आखें खुली रख कर भी सोते हो?

क्यों व्यथित हो कोई मित्र नही तुम्हारा?
क्या हुआ जो छूट गया कोई भी साथ प्यारा?
जान लो, है एक परम मित्र सदा ही संग,
लुटा रहा है वह तो, मित्रता के कितने प्यारे रंग !

देखो चारों ओर से सरसराती हवाएं,
अधीर हैं कब तुम्हारे बालों को सहलाएं,
उछलती, कूदती, गाती गुनगुनती कह रही हैं -
'आओ हम तुम उमड़ उमड़ कर झूमें, नाचें गायें। !'

खिलखिलाते रंग-बिरंगे कली कुसुम,
तुम्हारी आभा को देख कहते-'कितने प्यारे हो तुम !',
तुम्हारे रंगों में हम अपने रंग मिलाएं,
आओ खुशबू से सारा जीवन भर जायें !'

देखो तुम्हारे कोमल नैनों को सुख देने,
हरे भरे हो कर बैठे हैं वृक्ष-समुदाय,
कहते हैं - ' आओ मित्र, यह सुख है अमृत है पियो,
आओ हम तुम मन में हरियाली फैलाएं !

ख़ुशी से आहलादित नदी व झरने,
कहते हैं - ' आओ हमारे संग बहने,
जीवन के किसी मोड़ से ना घबराएं,
आओ हम तुम अविरल हो बहते जाएँ !'

सुमधुर कलरव, ये चिड़ियों का संगीत,
हृदय को रंजित करते, ये प्यारे मीठे गीत,
पुकारते हैं - ' आओ हम तुम हवा में घुल मिल जाएँ,
संगीत की तरंगें बन चाहूं ओर लहराएँ !'

झिलमिलाती रवि-रश्मी हो रही विकल है,
प्रस्फूटित हो तुम्हारे हृदय में जगमगाने,
कहती है - " तमस को आशा का सूरज दिखाएं,
आओ अंधकर से प्रकाश की ओर जाएँ।'

सुनो इन ऊँचे हिम-शिखरों की पुकार,-
'चढ़ आओ हम पर मानेंगे आभार,
तुम्हारी इच्छाशक्ति में, हमारी दृढ़ता को मिलाएं,
आओ हम तुम उत्थान की दिशा को जाएँ।'

सुनो रात्रि की शांति में हृदय का स्पंदन,
चंद्र के कोमल प्रकाश से भरा है आँगन,
चाँदनी की हर किरण कहती है -
'आओ शांति के सरोवर में नहाएं,
इस ब्रह्म से उस ब्रह्म की ओर जाएँ !'

दूध के धुले हृदय, ये मासूम चेहरे,
इनके मन पर नही किसी के भी पहरे,
सुनो इन चंचल, कोमल नैनों का इशारा -
' आओ हम तुम खेलें, दुनिया को भूल,
अपनी धुन में गुम हो जायें !'

क्या अब भी व्यथित हो, की कोई मित्र नही तुम्हारा?
अपनी आँखें खोलो, देखो, सारा विश्व तो है तुम्हारा !
हर कण तो प्रेम से भरा है !
उस परम मित्र ने तो तुम्हे कभी नही बिसारा !

फिर, हे मित्र तुम क्यों रोते हो?
क्यों माया की भूल-भुलैया में खोते हो?
क्यों आखें खुली रख कर भी सोते हो?

कहाँ?

शाम से रात तक, रात से सुबह तक,
दौड़ती साँसों न जाने किधर को चली जाती हैं,
कभी सोचती नही, कभी ठहरती नहीं,
कभी बिगड़ती नहीं, कहीं संवरती नही,
कहीं घूमती नही, कभी विचरती नही,
कहीं खोती नहीं, कभी उभरती नही,
एक लय में बस चली जाती हैं,
कहीं एक ही तरफ़, एक ही दिशा में,
जैसे कोई उनका इंतज़ार करता है...
पर कहाँ?

थकान?

कभी सोचा है भला ?
चेहरे की रौनक पर लकीरें कैसे पड़ गई?
कैसे मुस्कुराहट को सीलन जकड गई?
कैसे मिठास में चीनी कम पड़ गई?
कैसे गर्दन ठूंठ सी अकड़ गई?

कैसी है यह थकान? क्यूँ आलाप में ज़ोर नहीं?
क्यूँ है ऐसा लगता की होगी न भोर कहीं?
क्यूँ गिन कर मीलों की दूरी है सर झुक गया?
क्यूँ यह सब सोच कर ही कारवाँ है रुक गया?

हे चिंतित मित्र, ख़ुद को झंझोड़ !
कदम बढ़ा, विचारों का गहरा जाल तोड़ !
यह थकन नही, मृगमरीचिका है !
जान ले, कुछ भी न यहाँ टिका है !

रुकने वाले को समय घसीट कर लायेगा,
हाथों में, पावों में, खरोंचे लगाएगा,
दिल में ज़ख्म लगाकर आना पड़ेगा,
बढ़ते बढ़ते दर्द भी छुपाना पड़ेगा !

जब छोडेगा हर जगह ठहर जाना,
जब खोलेगा बंधन का ताना बाना,
जब गायेगा बहता हुआ तराना,
तभी पायेगा एक अनमोल खजाना,

पानी की तरह जो बह बह कर आगे,
समय की रफ्तार के संग संग भागे,
वही स्वतंत्र है, आनंद की डोर पर,
सागर की गहराई में, अम्बर के छोर पर !

रंग बदलते चेहरों के बीच, अपना रंग खिलाओ !
विजय निश्चित है मानो, झूमते जगमगाओ !
थकान को मिटाओ, शक्ति को जगाओ !
दर्द के झूठ को तोड़ो, बढ़ते चले जाओ !







साँस..

तंग ज़िन्दगी के झुरमुट से, एक छोटी सी साँस निकल आई,
थोडी सी महक में नहाई, थोडी रंगों में मुस्काई,
कुछ देर इधर उधर डोलती, कुछ कूद फांद कर आई,
बूंदों को छुआ, सागर को छुआ, बिजली को छुआ, बादल को छुआ,
एक पल में जाने कितने सितारों से खेली परछाई,
...और फिर, सांझ के डर के मारे, चुपचाप घर लौट आई...

शोर

शोर, शोर, बस शोर ही शोर,
आत्मा भी अब बहरी हो चुकी है,
घनघोर अंधेरे में भी सन्नाटा नही बस शोर है,
सबकुछ सुनकर भी जैसे कुछ न सुना हो,
आसपास जैसे ताना बाना बुना हो,
साँस लेना भी मुश्किल है,
आसपास हर कोई है, पर पास कोई नही, बस शोर है
हर नई सुबह से नई उमंग तो मिलती है,
पर शोर में खो जाती है कहीं,

आँखें पथरा गई हैं,
ह्रदय किसी अनजान कोने में, सहमा सा, चुपचाप धड़क रहा है,
सुबह, शाम, रात में तो कोई अन्तर ही नही बचा ,
अन्दर बाहर ऊपर नीचे, चारों ओर, बस शोर ही शोर !

कहीं किसी का रुदन, सिसकियों का शोर,
कहीं किसी का भड़कना, धमकियों का शोर,
कहीं किसी का चिढ़ना, चिल्लाहट का शोर,
कहीं किसी की कुटिलता, घृणा, द्वेष का शोर,
कहीं किसी का गर्व, अवमानना का शोर,
कहीं किसी का प्रेम, मतभेदों का शोर,
कहीं किसी की प्रगति, ईर्ष्या का शोर,
कहीं किसी की दुर्गति, उपेक्षाओं का शोर ,
कहीं किसी का भाषण, विवेचनाओं का शोर,
कहीं जानवरों का क्रंदन, मूकता का शोर,
कहीं किसी का स्वार्थ, अधीरता का शोर,
आत्मा का बिलखना, करुण पुकार का शोर,

कानों को बधिर करता,
आँखों को बोझल करता,
पैरों को काट देता,
पदचिन्हों को मिटा देता,
भावनाओं को कचौटता,
सपनों को रोंद्ता,
ह्रदय को टुकडों में बाँटता,
टुकडों को भी काटता,
आशाओं को जलाता,
आत्मा को रुलाता,

यह शोर, आख़िर आया कहाँ से?
कौन मचा रहा है?
मैं, तुम, या हम सब?
क्यूँ नही छोड़ देते इस पापी को जिसे हमने ही अपनाया है?
क्यूँ नही मोड़ देते इस बवाल को जिसे हमने ही उठाया है?

इस शोर को मिटाना होगा, इस दानव को मिटाना होगा,
नहीं तो इस शोर में खो जायेंगे हम सब, यह प्रकृति,
यह इश्वर की अनमोल कृति,
सब कुछ भांप बन कर उड़ जाएगा !
और बच जाएगा यह शोर,
अपनी भूख मिटाने के लिए किसी और सभ्यता की तलाश में !