शब्दों के जंगल में ....

शब्दों के जंगल में ,शान्ति लिए ,
निकल पड़ी हूँ मन में ,क्रान्ति लिए !
शोर ही शोर , देखूँ चहूँ ओर ,
जैसे सावन से रूठा हो मोर ,
कलरव भी लागे है ठीकरे सा खाली ,
बजे न मृदंग , है कर्कश सी ताली ।
पेडों पे लागे न अम्बुआ का मोर ,
सूनी सी लागे है आँगन की भोर ,
पाखी न छेड़े वो मस्ती की तान,
नैनों में सपनों का पंछी बेभान,
उड़ने को पंख जो मैंने पसारा ,
रोता सा दिखा एक चेहरा वो प्यारा ,
छूने अम्बर मैं उड़ना जो चाहूँ ,
विकल हो फ़िर मुड़ना ही चाहूँ .
जानूँ न चाहे क्या मेरा सितारा ,
दूर से मुस्काता , फिरता आवारा ,
आशाएँ मन की गाती यह गान ,
"गंतव्य होगा कोई तो महान ,
जीवन के पथ पर देर सवेर ,
मिल ही जाएगा इस चिडिया को डेर !"