स्वप्न

सपनों की ऊँची उड़ान है,
सपनों का सुंदर मकान है,
स्वप्न है जल से अविरल निर्मल,
स्वप्न हैं भावनाओं से कोमल.

मेरी पलकों की छाया में,
एक स्वप्न यूँ ही आ के बसा था,
मैं चंद्रिका बन छाई थी,
चहूं ओर यही दृश्य रचा था.

सिमट के जैसे सारी वसुधा,
मुझे देखने को आई थी,
कण-कण झूम रहा था कांतिमय,
धवल चाँदनी घन छाई थी.

अहा ! कितनी सुंदर थी मैं !
मुझसा कोई ना वहाँ था उज्जवल !
हर मुख पर मेरा प्रकाश था !
मुझसे दीप्तिमान था हर पल !

तभी कहीं से मंजुल इक स्वर,
मन के तार बजाता आया,
रूप रंग का भान था छूटा,
साँसों में वह आके समाया.

ईर्ष्या-ज्वलंत ज्वाला ने,
मुझे अंदर तक था भस्म किया,
जल-जल कर कराहते ,
मेरे 'अहं' ने उससे प्रश्न किया -

" हे पक्षी ! क्या तेरे चक्षु,
प्रकाश में अंधुक हो जाते?
तू जो मुझको देख ही लेता,
तेरे 'स्वर-कण' भी धुल जाते !

तेरा रंग है कला,
तभी तू सामने आने से डरता है,
मैं हूँ सुंदर उज्ज़वला, सो,
मुझको अनदेखा करता है ? "

पक्षी के काले चेहरे पर
उभरी एक ज्योति निश्चल,
उज्जवल रवि-किरण सा प्रस्फ़ुट
उत्तर मधुरम आया उस पल -

"हे चंद्रिका, तू है सुंदर,
तेरी विभा है सबसे निराली,
पर तेरी 'उजली छाया' भी,
बदलेगी ना देह ये काली.

मेरी मंजुल स्वर गंगा में,
बहने वाली रूप-गर्विता,
देख है डूबा हर कण तेरा,
सुर-सागर में बन के सरिता.

क्या तुझको है विदित नही यह,
कहाँ से आई तेरी रोशनी?
क्या तू भूल गयी है
प्राची बन जाएगी तेरी भेधिनी?

सूर्य की किरणों मे धुल कर,
तू हो जाती है पल में ओझल,
पर मेरे सुरों की गंगा,
बहती तब भी यूँ ही कल-कल !

किस काम की तेरी कांति,
जिससे सत्य उभर ना पाता,
चकाचौंध से तेरी कह,
क्या जीवन किसी का सुधर भी पाता?

अर्ध-सत्य है भूलभुलैया,
भटक रही है तू बेबान,
हृदय को अपने धवल कांति दे,
त्याग भी दे अब तू अभिमान !

क्यूं आई है जन्म तू लेकर,
पूरा करने कौन सा काम?
पहचान कौन है तू?
कहाँ है तेरा ईश्वर विध्यमान !

ढूँढ हृदय के हर कोने में,
कहाँ छुपी वह ज्योति महान
कर जीवन को सिद्ध, पहुँच जा,
अपने सत्य के ज्योति धाम !

जिसने रचा मुझको-तुझको,
किया रूप-सुर से धनवान,
जिसने ज्ञान का स्रोत बनाया,
क्यूं ना करे उसका ही ध्यान ! "

उन शब्दों ने मेरे
अंतर-घट को था झंझोड़ दिया,
एक तीव्र किरण सी उभरी,
जिसने स्वप्न को तोड़ दिया !

पक्षी, सुर, कांति व चंद्रिका,
हो चुके थे सारे ओझल,
पर वे शब्द अब भी गूँजित हो,
मचा रहे हैं मन में हलचल.

स्वप्न था सुंदर, स्वप्न था कोमल,
स्वप्न ने था ज्ञान दिया,
नमन है शत-शत उस ईश्वर को,
जिसने स्वप्न में भान दिया !

No comments: