मैं अब चली हूँ सत् की डगर...

मैं अब चली हूँ सत् की डगर,
ना है रोग मुझको, ना कोई है डर,
माता सी धरती, पिता सा अंबर,
सत् का है रास्ता, सत् का सफ़र !

पहले थी गिरती, उठती थी, चलती,
ढूँदती थी बस लक्ष्य को नज़र,
थक हार बैठी, जब झुका यह सर,
तब पाया मैने आप ही को गुरूवर् !

जीवन में मेरे फिर हुई भोर,
आपने दिखाई सुनहरी वह डोर,
दिया मेरे हाथ में उसका एक छोर,
थामे उसे मैं चलूँ लक्ष्य ओर.

बढ़ती हूँ आगे, मन गीत गाये
ना सुध कोई मुझे कौन आए, कौन जाए,
आपको ही देखे, यह मन मुस्कुराए,
ऐसे ही मेरा हृदय प्रेम पाए.

जानूँ ना कैसी है आगे डगर यह,
इसी डोर को थामे चलते है रहना
और अगर कभी जो क़दम डगमगाए,
मुझे देख लेना, है इतना ही कहना.

मैने है छोड़े भ्रम के उजाले,
मुझको नही रास आते ये प्याले,
मुझे प्यास है ज्ञान की, तुम हो तृप्ति,
मुझे है मुक्त होना, तुम ही से मुक्ति.

मैं अब चली हूँ सत् की डगर,
ना है रोग मुझको, ना कोई है डर,
माता सी धरती, पिता सा अंबर,
सत् का है रास्ता, सत् का सफ़र !

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