पृथ्वी से पृथक हो कर,
समय के गर्भ से बहार,
जिन्दगी के पुल से ऊपर,
जाना चाहूंगी उस क्षितिज के पार।
जहाँ मिल जाते धरा व गगन,
जहाँ समागम हो प्रकाश अंधकार,
जहाँ एक रूप हो सबका प्यार,
जाना चाहूंगी उस क्षितिज के पार।
जहाँ धूप छाँव में ना हो कोई अंतर,
हर हाल में मन गाए निरंतर,
सुख दुख में हो साम्य विचार,
जाना चाहूंगी उस क्षितिज के पार।
जहाँ मन सुन्दर है हो जाता,
और निर्गुण रूप में खो जाता,
जहाँ हो सगुण ब्रम्ह का दर्शन द्वार,
जाना चाहूंगी उस क्षितिज के पार।
मेरी ज्ञान गंगा पर, जिस सिंधु का है एकाधिकार,
जहाँ मेरा प्रेम कर जायेगा मेरा उद्धार,
जहाँ मिल जाएगा मुझे इस जीवन का सार,
जाना चाहूंगी उस क्षितिज के पार।
2 comments:
Excellent. The content, as always, is beautiful. but I liked the rhyme. It's hummable. I reckon, I must start looking for a publisher. :)
Writing reveals a lot....so Ms. ur poem is also a lot....
Thanks for keeping such a nice poem on a blog...
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